माता पिता प्रथम गुरु होते हैं। यह बात सर्वविदित है। पर, प्रथम गुरु कुछ ही माता-पिता बन पाते हैं और उनके परम शिष्य भी कुछ ही बच्चे बनते हैं। भाग्यशाली होते हैं जो उन्हें यह अवसर मिलता है। मेरे माता-पिता उनमें से ही एक थे। उन्होंने अपने बच्चों को जो कुछ बनाना चाहा वे बने।
अपने कठोर और हृदयस्पर्शी अनुशासन से सभी बच्चों को मितव्ययी, अनुशासित, परिश्रमी और विद्यावान बनाया। हालांकि भाग्य सभी का एक सा नहीं होता, हर कोई अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं, फिर भी सही वातावरण देना अभिभावकों का कर्तव्य होता है।
मैं देख रही हूं कि आधुनिक युग में अभिभावक अपने बच्चों को सही दिशा नहीं दे पा रहे हैं। वे लाड-प्यार में उन्हें कर्महीन बनाते जा रहे हैं। कर्म को हेय दृष्टि से देखते हैं। काम नहीं करना अपनी महानता समझते हैं। चाहे वह बेटी हो या बेटा। पहले बेटों से इसलिए कम काम कराते थे कि उन्हें पढ़-लिखकर नौकरी करनी है, व बेटी को नौकरी नहीं करनी होती थी। अब तो बेटी को भी नौकरी ही करनी होती है। ऐसे में उसे भी काम से छूट मिल गई है कि पढ़ रही है। आगे जाकर (ससुराल में) तो काम करना ही है।
यह भी हकीकत है कि बिना प्रशिक्षण कोई भी शिक्षा पूर्ण नहीं होती है। ऐसे में अपने माता-पिता के घर हाथ से काम नहीं करने पर वे अपने ससुराल जाकर कैसे काम कर पाएंगी। यह बात माता-पिता को सोचनी होगी।
एक युवती गृह कार्य में दक्षता हासिल किया बिना सुगृहिणी कभी नहीं बन सकती। खाना बनाना, घर साफ सुथरा रखना, हाइजनिक दृष्टि से पीने के पानी के स्थान यानि परिण्डे को साफ रखना, रसोई, कपड़ों और बिस्तरों की स्वच्छता का ध्यान रखने में भी दक्षता की जरूरत होती है।
प्राचीन भारतीय समाज की व्यवस्था के अनुसार माताएं दस या बारह साल की उम्र में बच्चियों को उपयुक्त शिक्षाओं से अवगत कराना शुरू कर देती। इसके साथ ही सहनशीलता के पाठ भी चलते। संयुक्त परिवारों में वैसे भी सहनशीलता का पाठ सीखने के अधिक अवसर रहते।
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