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शुक्रवार, 6 मई 2011

संयुक्‍त परिवार की जरूरत



संयुक्‍त परिवार में बड़ों का आदर करना, उनका कहना मानना, वापस जवाब नहीं देना, बराबर वालों के साथ खेलना, छोटों से प्रेम करना, खाने की चीजें बांटकर खाने जैसे गुण स्‍वत: ही सीखने को मिलते थे। बड़े जैसे करते छोटे उनका अनुसरण करते थे। माता-पिता द्वारा बच्‍चों को अलग से प्रशिक्षण देने की जरूरत नहीं रहती थी। घर के बड़े बुजुर्ग भी बच्‍चों को नसीहत देते रहते थे। आध्‍यात्मिक, सामाजिक, पारिवारिक भावनाओं से भी परिचय कराते थे।

अब एकल परिवार प्रथा का जो आनंद लेने लगे तो इन सब बातों से बच्‍चे दूर होते जा रहे हैं। उन्‍हें रिश्‍तेदारियों तक का ध्‍यान नहीं होता। चाचा और ताऊ के रिश्‍ते भी उन्‍हें बड़े दूर के रिश्‍ते नजर आते हैं, जबकि पहले चार पीढि़यों तक के पारिवारिक सदस्‍य अपने ही लगते थे। वे आपस में मिल-जुलकर आनंद उठाते थे। साथ खाना, साथ खेलना और साथ सोने के अलावा विद्यालय जाने में भी सभी साथ होते। दिन भर साथ रहने का आनंद ही अलग होता। अब जहां देखो यह समस्‍या दिखाई देती है कि हमारा बच्‍चा खाना नहीं खाता। कारण स्‍पष्‍ट है अकेलेपन के कारण बच्‍चों को कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता। वे कुपोषण का शिकार होने लगते हैं। आए दिन चिकित्‍सकों के यहां भागकर जाना पड़ता है, क्‍योंकि घर में दादी अम्‍मां तो है नहीं, दादी के मटके में क्‍या है। तथा उसके घरेलू उपचार उसके पास ही हैं। शिक्षित माताएं भी दादी अम्‍मां के उपचारों को अच्‍छा नहीं मानतीं और उन पर विश्‍वास करती हैं।

कहने को तो एकल परिवार में माता पिता कहते हैं कि हम तो अपने बच्‍चों पर विशेष ध्‍यान देते हैं, और बहुत ही प्रेम से पालते हैं, जबकि होता यह है कि दस पंद्रह लोगों के प्‍यार से उन्‍हें वंचित कर दिया जाता है। मां-बाप भी अपनी व्‍यस्‍तताओं के चलते बच्‍चों पर पूरा ध्‍यान नहीं दे पाते हैं। एकल परिवार के कारण वृद्धों, अपाहिजों, विधवाओं और परित्‍यक्‍ताओं का संयुक्‍त परिवार में जो स्‍वतं: पालन पोषण और आश्रय स्‍थल होता था, वह भी समाप्‍त हो जाता है। भारतीय संस्‍कृति की परिवार प्रथा में कितना प्रेम और आनंद का वातारण होता था। जहां न विधवा आश्रम की जरूरत थी न वृद्धाश्रम की। युवाओं को अनुभवियों से सीखने की ललक होती थी। वे अहंकारी नहीं होते थे। आज के युवा में अहंकार भर गया है। वे वृद्धों के अनुभव को ढकोसला और दकियानूसी कहकर मजाक उड़ाते हैं। वृद्धों की बात सुनना नहीं चाहते। वृद्ध अपने जीवन के अनुभवों से कुछ अच्‍छे संदेश देकर उनका भविष्‍य अपने से भी अच्‍छा संवारने के लिए कहना चाहते हैं। मगर युवा अपने को अत्‍यधिक अनुभवी व विद्वान समझकर उनकी बातों पर ध्‍यान ही नहीं देते। आगे चलकर उनकी बातों में सत्‍य झलक देखकर चाहे पछताना ही क्‍यों न पड़े। आज जो विश्‍व में भ्रष्‍टाचार का जो बोलबाला है उसके पीछे ये सारे उपर्युक्‍त कारण ही हैं। पहले बचपन से ही बच्‍चों को शिक्षा दी जाती थी, झूठ बोलने से पाप लगता है, चोरी करने से नरक की यातना भोगनी पड़ती है तथा कीड़ों की योनी में जन्‍म लेना पड़ता है। नानी दादी की ये बातें सुन बच्‍चे डरकर ऐसे कामों से दूर रहते थे। अगर कई बच्‍चों पर प्रभाव नहीं हो तो साथ में रहने वाले उसे डराते, तूने झूठ बोला पाप लगेगा, तुमने चोरी की कीड़ा बनोगे। बचपन की बातें हमेशा याद रहती है और लोग भ्रष्‍टाचार कम करते थे।

रविवार, 1 मई 2011

मैं राधादेवी हर्ष

नमस्‍कार,

मैं राधा देवी हर्ष हूं। अपने माता-पिता से जिंदगी जीने का सलीका सीखा और पिछले साठ साल में अपने बच्‍चों और बाद में अपने नाती पोतों को यह सब सिखाया। अब तो पड़पोतों के साथ यह प्रक्रिया जारी है। जिंदगी ने भी बहुत कुछ सिखाया।

पिछले कुछ दिन से बच्‍चे कह रहे हैं कि मुझे भी ब्‍लॉग लिखना चाहिए। इससे देश और समाज के दूसरे बच्‍चों को भी फायदा मिलेगा। ठीक है शुरू करते हैं...


मैं राधा देवी हर्ष

पिता - डॉ. माधोदास व्‍यास (पीएचडी हिन्‍दी)
माता- श्रीमती बसन्‍ती देवी व्‍यास
पति - जगत नारायण हर्ष
बच्‍चे - शशि, अनिल-अनुराधा, राजीव-नीता।
बच्‍चों के बच्‍चे - सिद्धार्थ- प्रवीणा, आनन्‍द, आतुर, गौरव, सौरभ और कान्‍हा।

पढ़ाई एम ए हिन्‍दी में और बीएड के बाद एमएड किया।
पूरी उम्र शिक्षिका रही और उच्‍च माध्‍यमिक विद्यालय के प्रिंसीपल पद से सेवानिवृत्‍त हुई। जून 2000 में सेवानिवृत्ति के बाद से पूरा समय परिवार को दे रही हूं। अब कुछ समय नेट पर आप लोगों के साथ बीतेगा..